लड़खड़ाते लब्बों की दास्ताँ – Ladakhadaate Labbon Ki Daastaan

जगजाहिर कर दे जमाना, कहीं मैं तड़प कर ना रह जाऊ। लड़खड़ाते लब्बों की दास्ताँ, कोई अपना हो तो कह जाऊ।

कँपकँपाने लगा है बदन मेरा, आँखें नम रहने लगी हैं। लड़खड़ाते लब्बों से ये नैना दर्द-ए-इश्क़ कहने लगी हैं।

उदासी छाई, कभी मुस्कुराये थे लब्ब, थी जब किस्मत दीवानी। कोई अपना सा होता तो कह देते, लड़खड़ाते लब्बों की कहानी।

गुजारिश की लड़खड़ाते लब्बों ने, मगर वो नज़रंदाज़ करते रहे। वो संग गैरों के मुस्कुराने लगे, और हम थोड़ा थोड़ा मरते रहे।

जमाना कहे मुस्कुरा दो फिर, लड़खड़ाते लब्बों को ना मुस्कुराना आता है। रूह भी मेरी कंपकंपाने लगती है, जब दिल मेरा दर्द-ए-मोहब्बत सुनाता है।

काश कुछ ऐसा हो जाए, जो गुजर गया वो वक़्त भूल जाऊ। फिर शायद लड़खड़ाते लब्बों के लिए, मुस्कान मैं ढूढ़ लाऊ।

कैसे कहू ये इश्क-ए-दर्द की दास्तां, कुछ कहने से पहले लड़खड़ाते है लब्ब मेरे। अब कोई ख्वाहिश ना अरमान है मेरा, सांसे थमने की गुजारिश सुन ले रब्ब मेरे।

उसने खाख किया है मुझे, जिसकी खातिर ये दिल रोया है। यूं ही नहीं लड़खड़ाते लब्ब, मेरे लब्बों ने बहुत कुछ खोया है।